मंगलवार, 4 अप्रैल 2017

सिनेमा के सिद्धांत (Theories of Film)

सिनेमा के सिद्धांत के लिए चित्र परिणाम 
सिनेमा का निर्माण कोई एक व्यक्ति नहीं तो पूरे विश्वभर में विभिन्न देशों में विभिन्न भाषाओं के भीतर कई लोग कर रहे हैं। फिल्म निर्माण के दौरान निमार्ताओं द्वारा कोई सिद्धांत, मूल्य, विषय, नियम, कानून तय होते हैं। प्रत्येक निर्माता-निर्देशक इन सिद्धांतों और मूल्यों के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है। इसके पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि सिनेमा का समाज के साथ और साहित्य की विधाओं के साथ संबंध रहा है। सिनेमा एक कला भी है। कई विधाओं और कलाओं को सिनेमा अपने भीतर समेट लेता हैं। वह उन्हें न केवल समेटता है तो ताकतवर रूप में प्रस्तुत भी करता है। खैर इन सबका समेटना और प्रस्तुत करना नीति-नियम और कानून के तहत होता है। सिनेमा के निर्माता और निर्देशकों को लगता है कि हमसे बनी सिनेमाई कृति दर्शकों को पसंद आए, टिकट खरीदकर वे अगर उसे देख रहे हैं तो उनका पैसा भी वसूल हो जाए और सिनेमा के माध्यम से हमें जो संदेश दर्शकों तक पहुंचाना है वह भी उनके पास पहुंचे। सिनेमा का अंतिम उद्देश्य क्या होता है? इसे तय करने का काम सिनेमा के निर्माता, निर्देशक करते हैं। सिनेमा की कथा लेखक लिखता है, परंतु उसके माध्यम से प्राप्त संदेश और उद्देश्य को किस रूप में और कैसे दर्शकों को तक पहुंचना है यह निर्माता-निर्देशक तय करते हैं।
       फिल्में कौनसे विषयों पर बनानी हैं, उन्हें किस रूप में प्रस्तुत करना हैं, कौनसे कलाकारों का चुनाव करना हैं, फिल्मों के शूटिंग के लिए लोकेशन कौनसे चुनने हैं... आदि बातों को तय करने का अधिकार फिल्म निर्माताओं का होता है। विश्व सिनेमा में ऐसे कई निर्माता और निर्देशक हैं जिन्होंने अपनी जिंदगी को एक ही संदेश और सिद्धांत को दर्शकों तक पहुंचाने में लगाई है। अपने सिनेमाई सिद्धांतों के साथ वे कभी समझौते नहीं करते हैं। यह बात केवल निर्माता और निर्देशकों के लिए ही लागू होती है ऐसी बात नहीं, कलाकारों के लिए भी लागू होती है। ऐसे कई कलाकार भी हैं जिन्होंने अपने सिद्धांतों के विरोध में जाकर कभी सिनेमा के भीतर काम नहीं किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इंसानों के जिंदगी में जीने के सिद्धांत तय होते हैं और उसके तहत हम अपना जीवनानुक्रम जारी रखते हैं। फिल्में बनानेवाले निर्माता-निर्देशक भी इंसान ही है और उनके जीवन में भी सिद्धांतों की एहमीयत होती है। अर्थात् उन्हीं सिद्धांत और मूल्यों को समाज में स्थापित करने और दर्शकों तक उन्हें पहुंचाने का उनका प्रयास होता है।
       इस पाठ के पहले हम लोगों ने सिनेमा के कथा की संरचना को लेकर कई प्रकार और उपप्रकारों को लेकर विचार-विमर्श किया है साथ ही सिनेमा के जॅनर (शैली) पर भी प्रकाश डाला है। इनको पढ़ते वक्त एक बात हमें पता चलेगी कि विशिष्ट पद्धति से कथा की संरचना करते वक्त और किसी विशिष्ट जॅनर के तहत फिल्म बनाते वक्त उसके मूलभूत तत्त्व तय होते हैं। इन तत्त्वों को पालन करना पड़ता है तभी फिल्म की कथा और विषय के साथ न्याय कर सकते हैं। निर्माता-निर्देशक के खुद के सिद्धांत और मूल्य होते हैं या वह दुनिया के किसी दार्शनिक के विचारों से भी प्रभावित होता है। वह अपने सिद्धांतों और मूल्यों को सिनेमा के माध्यम से दर्शकों के सामने रखता है या वह जिन दार्शनिकों के विचारों से प्रभावित है उन विचारों को सिनेमा में अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है। यह सबकुछ करते वक्त उसे सिद्धांत, व्यावसायिकता, मनोरंजनात्मकता, उचितता, सामाजिकता, व्यावहारिकता... आदि बातों का भी खयाल रखना पड़ता है। अर्थात् संक्षेप में कहा जाए तो फिल्म निर्माण कर्ता अपने विचार और सिद्धांत सिनेमा के माध्यम से प्रस्तुत करें परंतु मनोरंजन और व्यावसायिक नजरिए के साथ भी उसका तालमेल बिठाए या बॅलंस करें यह जरूरी होता है। यह आलेख The South Asian Academic Research Chronicle के ताजे अंक में प्रकाशित है, पढने के लिए यहां क्लिक करें - http://www.thesaarc.com/archives/January%202017/20170103.pdf

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